Monday, November 25, 2013

सितारों के बारे में इस्लामी थ्योरी


यह जानना रोचक होगा कि आज से लगभग तेरह सौ साल पहले इस्लामी विद्वान सितारों के बारे में क्या नज़रिया रखते थे। यहाँ पर मैं उस समय के दो महान विद्वानों का वार्तालाप प्रस्तुत कर रहा हूं। इनमें से एक इमाम जाफर सादिक(अ.) थे जबकि दूसरे उनके शिष्य जाबिर इब्ने हय्यान थे। इमाम जाफर सादिक(अ.) उमय्यद सल्तनत के अंतिम व अब्बासी सल्तनत के प्रारम्भिक दौर में हुए हैं और उस दौर में इस्लाम के सर्वोच्च धर्माधिकारी थे। जबकि जाबिर इब्ने हय्यान उर्फ गेबर को दुनिया फादर आफ केमिस्ट्री के नाम से जानती है।
निम्न वार्तालाप फारसी किताब 'मग़ज़े मुतफ़क्किरे इस्लाम से लिया गया है जो कि उर्दू में 'सुपरमैन इन इस्लाम नाम से अनुदूदित हुई है।

जाबिर ने इमाम जाफर सादिक(अ.) से पूछा, ''ये रोशन सितारे, जो लगातार गति में हैं और उनमें से कुछ को हम तयशुदा दूरियों पर देखते हैं ये क्या हैं? और क्यों ये एक दिन के लिये भी नहीं रुकते? इमाम जाफर सादिक(अ.) ने फरमाया, ''आसमान का हर सितारा एक दुनिया है और उन सब सितारों के समूह से एक बड़ा जहान बनता है।
सितारों की लगातार गति इसलिए है कि ये शांत न हों और दुनिया का डिसिप्लिन खत्म न हो जाये। और ये गति वही गति है जिससे जिंदगी अस्तित्व में आती है। या ये कि स्वयं गति ही जिंदगी है। और जब गति रुक जाती है तो जिंदगी खत्म हो जाती है। लेकिन अल्लाह ने इस तरह सिस्टम बनाया है कि गति किसी वक्त भी नहीं रुकती यानि जिंदगी हमेशा रहती है। और जिंदगी का बाक़ी रहना भी प्राणियों के फायदे के लिये है।
जाबिर ने पूछा, 'स्पेस में सितारों की शक्ल कैसी है?" इमाम जाफर सादिक(अ.) ने जवाब दिया, ''आसमान के कई सितारे ठोस हैं और कई द्रव या गैस की हालत में हैं। और आसमानी सितारों का एक हिस्सा धूल (बुख़ारात) से अस्तित्व में आया है।

जाबिर इब्ने हय्यान ने आश्चर्य से पूछा, ''ये बात किस तरह कुबूल की जा सकती है कि आसमान के सितारे धूल से असितत्व में आये हैं? क्या ये बात संभव है कि धूल इतनी चमकीली हो जिस तरह रात को ये सितारे चमकते हुए नज़र आते हैं?" इमाम जाफर सादिक(अ.) ने फरमाया, ''सभी सितारे धूल से नहीं बनते। लेकिन वह सितारे जो धूल से बनते हैं, गर्म हैं और उनकी ज़यादा गर्मी उनकी चमक का कारण है, और मेरा ख्याल है कि सूरज भी धूल से बना है।"

जाबिर ने कहा, ''आपने फरमाया कि सितारों में से हर एक एक दुनिया है।" इमाम जाफर सादिक(अ.) ने सहमति व्यक्त की। जाबिर ने पूछा, ''क्या इंसान उन दुनियाओं में हमारी दुनिया की तरह मौजूद है?"
इमाम जाफर सादिक(अ.) ने फरमाया, ''इंसान के बारे में मैं तुम्हें कुछ नहीं कह सकता, कि वह इस दुनिया के अलावा दूसरे जहानों में भी मौजूद है या नहीं। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि दूसरे ग्रहों में प्राणी मौजूद हैं और उन सितारों के दूर होने की वजह से हम वहाँ के प्राणियों को नहीं देख पाते।

जाबिर ने पूछा, ''आपके पास क्या तर्क है कि दूसरे ग्रहों में प्राणी मौजूद हैं?"
इमाम जाफर सादिक(अ.) ने फरमाया, ''अल्लाह ने फरमाया है कि उसने इंसानों के साथ जिन्नों को भी खल्क़ किया है। और जिन ऐसे प्राणी हैं जो देखे नहीं जा सकते। यानि हम उन्हें नहीं देख पाते, वरना अल्लाह से कोई चीज़ छुपी नहीं है। वह तमाम प्राणियों को देखता है। और जिन जो शायद दूसरे जहानों में रह रहे हैं, हम इंसानों की तरह हैं या हमसे बेहतर इंसानों की तरह हैं।"

जाबिर ने पूछा, ''हमसे बेहतर इंसानों से आपका क्या मतलब है?" इमाम जाफर सादिक(अ.) ने जवाब दिया, ''शायद वह ऐसे इंसान हैं जो हमारे जैसी दुनिया में जिंदगी गुज़ारने के बाद बेहतर दुनिया में शिफ्ट हो गये हैं। उसी तरह जैसे अगर हमने इस दुनिया में अच्छे काम किये तो मौत के बाद इस दुनिया से अच्छी दुनिया में शिफ्ट हो जायेंगे।"
जाबिर ने पूछा, ''इस तरह तो हम मौत के बाद जिंदा होने के बाद उन सितारों में से किसी एक में जिंदगी गुज़ारेंगे जिन्हें हम रातों को देखते हैं।"

इमाम जाफर सादिक(अ.) ने फरमाया, ''मैं तुम्हें नहीं बता सकता कि मौत की नींद से जागने होने के बाद हमारी जगह कहाँ होगी। शायद हमारी जगह इसी दुनिया में हो जिसमें हम रह रहे हैं। और खुदा के लिये कुछ मुश्किल  नहीं है कि वह इसी दुनिया में नेक बन्दों के लिये जन्नत और गुनाहगारों के लिये जहन्नुम अस्तित्व में ले आये। या ये कि इंसान के मौत से जागने के बाद उसे दूसरी दुनिया में जगह दे।

(इसके बाद बातचीत का रुख दूसरे विषयों की ओर मुड़ गया था।)

Thursday, November 21, 2013

कौन है इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी? (भाग 4)


इससे पहले भाग 2 में हमने बताया कि रसूल ने अपने बाद धर्म का सर्वोच्च अधिकारी अहलेबैत को बनाया था। इसमें पहले थे इमाम हज़रत अली (अ.)। फिर एक वक्त आया जब इब्ने मुल्जिम नामक बाग़ी ने उन्हें नमाज़ में सज्दे की हालत में शहीद कर दिया। उनकी शहादत के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी बने उनके बेटे इमाम हसन (अ.) जो कि अहलेबैत में शामिल हैं और पंजतन पाक के चौथे सितारे थे। इमाम हज़रत अली(अ.) व बीबी फातिमा(स.) के बड़े बेटे थे।

रसूल अल्लाह(स.) की ऐसी बेशुमार हदीसें हैं जिसमें उन्होंने इमाम हसन(अ.) व इमाम हुसैन(अ.) से मोहब्बत की ताक़ीद की है। 
मसलन रसूल अल्लाह(स.) फरमाया, 'जो शख्स मुझ से मोहब्बत का दावेदार है उसपर लाजि़म है कि मेरे दोनों फरज़न्दों से मोहब्बत करे।
'जो शख्स हसन(अ.) व हुसैन(स.) से बुग्ज़ व दुश्मनी रखेगा वह क़यामत के दिन इस हाल में आयेगा कि उसके चेहरे पर गोश्त न होगा और मेरी शफाअत उसको नसीब न होगी।
'हसन(अ.) व हुसैन(स.) जवानाने जन्नत के सरदार हैं।
'जिसने हसन(अ.) व हुसैन(स.) से मोहब्बत की उसने मुझसे मोहब्बत की और जिसने इन दोनों से बुग्ज़ रखा उसने मुझसे बुग्ज़ रखा।  

इमाम हसन(अ.) बहादुरी में अपने वालिद हज़रत अली(अ.) की ही तरह थे और जमल, सिफ्फीन व नहरवान की जंगों में बराबर से लड़े थे। साथ ही वो इल्म (ज्ञान) में भी सर्वोच्च थे। 

इमाम हसन(अ.) की सखावत के अनगिनत किस्से तारीख में दर्ज हैं। एक शख्स ने आकर अपनी ग़रीबी का रोना रोया तो इमाम हसन(अ.) ने अपनी तिजारत में उस दिन तक जो भी मुनाफा हुआ था वह तमाम उसे सौंप दिया। एक और किस्सा ये है कि उनकी एक कनीज़ ने उन्हें फूलों का गुलदस्ता भेंट किया तो उसके बदले में उन्होंने उसे आज़ाद कर दिया। 
       
इमाम हसन (अ.) एहसान का बदला एहसान से देना जानते थे। एक बार वो अपने छोटे भार्इ इमाम हुसैन (अ.) और अब्दुल्लाह इब्ने जाफर के साथ हज के लिये रवाना हुए। रास्ते में उन्हें वीराने में भूख प्यास की शिददत के बीच एक झोंपड़ी दिखाई दी। जिसमें एक औरत रहती थी। उसने उनकी मेहमाननवाज़ी में अपनी एकमात्र बकरी पकाकर खिला दी। उसके कुछ साल बाद वहाँ अकाल पड़ गया और वह औरत व उसका शौहर सख्त मुसीबतों में पड़कर भीख माँगते हुए मदीने जा पहुंचे। वहाँ इमाम हसन(अ.) ने उसे देखा तो उसे बकरी वाला वाकिया याद दिलाया और बदले में उसे एक हज़ार बकरियाँ व हज़ार अशर्फियाँ इनायत फ़रमाईं और उन्हें इमाम हुसैन (अ.) के पास भेज दिया। इमाम हुसैन(अ.) ने भी हज़ार बकरियाँ व हज़ार अशर्फियाँ इनायत फ़रमाईं और उन्हें अब्दुल्लाह इब्ने जाफर के पास भेज दिया। उन्होंने भी इसी के लगभग दिया और वह औरत मालामाल होकर वापस गयी।

इमाम हसन(अ.) व इमाम हुसैन(अ.) दीन की तबलीग़ निहायत मेहरबानी के साथ करते थे। अपने बचपन में उन्होंने देखा कि एक बुज़ुर्ग गलत वज़ू कर रहे हैं। बजाय ये कि वे उन बुज़ुर्ग को टोकते, आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि तुम वज़ू गलत करते हो और मैं सही करता हूं। फिर उन्होंने बुज़ुर्ग से कहा कि आप हमारा फैसला कर दीजिए कि हममें किसका वज़ू सही है और किसका गलत।
जब बुज़ुर्ग ने उन्हें वज़ू करते देखा तो बोले कि शहज़ादों तुम दोनों का वज़ू सही है, मुझ बूढ़े जाहिल का वज़ू गलत था। अब मैंने आप हज़रात से वज़ू का तरीका सीख लिया है और आप हज़रात के सामने तौबा करता हूं।
इमाम हसन (अ.) ने हमेशा पैदल हज किया और अक्सर नंगे पैर हज के लिये तशरीफ ले जाते थे। जब नमाज़ के लिये मुसल्ले पर खड़े होते थे तो सारा बदन काँप रहा होता था। 
   
जब माविया ने आपको जंग बन्दी और सुलह के लिये खत लिखा तो उसमें यह था कि वह आपकी हर शर्त को क़ुबूल कर लेगा। फिर सुलहनामे में इमाम हसन (अ.) ने निम्न शर्तें रखी थीं, 
1. वह किताबे खुदा और सुन्नते रसूल (स.) पर अमल करेगा।
2. उसे अपने बाद अमीर के इंतेखाब का हक़ नहीं होगा।
3. वह हज़रत अली (अ.) पर अपशब्दों का इस्तेमाल तर्क कर देगा।
4. वह अली (अ.) के शीयों को अमन से रहने देगा और उन्हें परेशान नहीं करेगा।
5. वह साहबे हक़ का हक़ उस तक पहुंचायेगा।
6. वह हसन इब्ने अली(अ.), उनके भाई हुसैन(अ.) और खानदाने रसूल में से किसी को मारने या नुकसान पहुंचाने की कोशिश नहीं करेगा।

माविया ने तमाम शर्तों को कुबूल कर लिया और इस तरह यह सुलह हो गयी। हालांकि वह बाद में बहुत सी शर्तों से फिर गया। यहाँ तक कि उसने इमाम हसन(अ.) की एक बीवी को अपने बेटे यज़ीद से शादी करने का लालच देकर उसके हाथों इमाम को ज़हर दिला दिया और इस तरह इमाम हसन(अ.) की शहादत हुई ।
माविया ने हज़रत अली (अ.) के कुछ ऐसे सरदारों को दौलत का लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया था जो हज़रत अली(अ.) के तमाम चाहने वालों को अच्छी तरह जानते थे। उसने ऐसे लोगों को चुपचाप क़त्ल कराना शुरू कर दिया। ये सब यज़ीद के लिये खिलाफत की ज़मीन तैयार करने का मंसूबा था।
  
इमाम हसन (अ.) ने सुलह इसलिए की थी क्योंकि वह देख रहे थे कि बहुत थोड़े लोग हैं जो उनके साथ जंग के लिये दिल से तैयार हैं। उनके कुछ सरदार तो चुपचाप उनकी गिरफ्तारी का मंसूबा बना चुके थे। इसीलिए उन्होंने अपने खुत्बे में फरमाया,  
मैं अहले शाम के साथ जंग से इसलिए नहीं कतरा रहा हूं कि मैं दब गया हूं या मेरी फौज छोटी है बल्कि इसलिए कि पहले हम लोग इत्तेहाद, इत्तेफाक, और सब्र के साथ जंग करते थे। मगर वह इत्तेहाद आपस की जंग में बदल गया है, सब्र की जगह बेसब्री आ गयी है। पहले तुम लोग हमारे साथ चलते थे तो तुम्हारी दुनिया के आगे तुम्हारा दीन होता था और अब तुम्हारा ये हाल है कि तुम्हारे दीन के आगे तुम्हारी दुनिया है।

सुलह के बाद माविया को यह खुशफहमी हो गयी थी कि वह इस्लाम का खलीफा यानि धर्माधिकारी बन चुका है। इमाम हसन (अ.) ने उसकी खुशफहमी इन शब्दों के साथ दूर की, ''सुनो खलीफा तो वही होता है जो किताबे खुदा और सुन्नते रसूले खुदा पर अमल पैरा हो। खलीफा वह नहीं जो ज़ुल्म व जोर की राह अखितयार करे और सुन्नत को छोड़ दे। और दुनिया को अपना माँ बाप समझने लगे। अच्छा बादशाहत कर लो और उससे चन्द दिन फायदा उठा लो। फिर उसकी लज़ज़तें  खत्म हो जायेंगी और खमियाज़ा बाक़ी रह जायेगा।
इसे उस ज़माने के मुसलमानों की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि उन्होंने इमाम हसन(अ.) जैसे योग्य का दामन छोड़कर दूसरों को अपना हाकिम कुबूल कर लिया था।  
(...जारी है।)

Tuesday, November 12, 2013

कौन है इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी? (भाग 3)


आज से हज़ार साल पहले एक महान इस्लामी विद्वान शेख सुददूक(अ.र.) हुए हैं। उन्होंने अपनी किताब 'कमालुददीन' में कुरआन व हदीस से यह सिद्ध किया है कि हर दौर और हर ज़माने में खुदा के दीन यानि इस्लाम धर्म को बताने वाले कभी नबी, कभी पैगम्बर, कभी रसूल और कभी इमाम के तौर पर दुनिया में मौजूद रहे हैं और इस दुनिया के अंत तक मौजूद रहेंगे। यानि अल्लाह कभी दुनिया को बिना धर्म अधिकारी के नहीं छोड़ता। कुरआन इन ही धर्म अधिकारियों के अनुसरण का हुक्म देता है। पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद नबूवत का सिलसिला खत्म हो गया, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि इस्लाम बिना रहबर के हो गया। बल्कि कुरआन के मुताबिक यह सिलसिला अहलेबैत में जारी हुआ।

अहलेबैत में शामिल हैं हज़रत अली(अ.), बीबी फातिमा(स.), इमाम हसन(अ.) व इमाम हुसैन(अ.) । और यही पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी हुए। इनकी पैरवी करना पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है।
इस भाग में बात करते हैं बीबी फातिमा(स.) के बारे में। बीबी फातिमा(स.) पैगम्बर मोहम्मद(स.) की एकमात्र सगी बेटी थीं और इनकी माँ का नाम हज़रत खदीजा कुबरा(स.) था। हज़रत खदीजा कुबरा(स.) अपने समय की अरब मुल्क की सबसे धनी महिला थीं किन्तु उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद(स.) से शादी के बाद अपनी समस्त दौलत इस्लाम पर खर्च कर दी थी। माँ व बाप का आला किरदार बेटी को मिला, यहाँ तक कि रसूल(स.) ने अपनी बेटी के लिये फरमाया फातिमा(स.) मेरा टुकड़ा है। 

मात्र बीस या पच्चीस साल की उम्र में बीबी फातिमा(स.) की शहादत हो गयी थी। इस बीच उनकी फज़ीलत के बेशुमार रंग हमारे सामने ज़ाहिर होते हैं। इतिहास में यह दर्ज है कि जब कभी रसूल(स.) की बेटी उनसे मिलने जाती थी तो रसूल(स.) उनकी ताज़ीम में मेंबर से उठ जाते थे। पैगम्बर मोहम्मद(स.) की एक मशहूर हदीस ये है कि फातिमा(स.) तमाम दुनिया की औरतों की सरदार हैं।

रसूल(अ.) की बेटी होने के बावजूद बीबी फातिमा(स.) के पास दुनियावी दौलत में से कुछ नहीं था। सादगी में वह अपनी मिसाल आप थीं। अपनी माँ से मिले तमाम ज़ेवर उन्होंने अल्लाह की राह में दान कर दिये थे। वह घर में चक्की पीसने से लेकर तमाम कामों को अपने हाथों से अंजाम देती थीं और बच्चों की परवरिश करती थीं। घर में बिस्तर के नाम पर ऊंट की सूखी खाल थी जिसपर दिन में उनका ऊंट चारा खाता था और रात में वही खाल सोने के काम आती थी।
    
पैगम्बर मोहम्मद(स.) ने बीबी फातिमा(स.) की खुशनूदी को धर्म कहा और कहा कि जिसने बीबी फातिमा(स.) को खुश किया उसने अल्लाह को खुश किया और जिसने बीबी फातिमा(स.) को नाराज़ किया उसने अल्लाह को नाराज़ किया। एक रवायत के मुताबिक नमाज़ का वक्त हो चुका था और अज़ान कहने वाले हज़रत बिलाल(र.) मस्जिद नहीं पहुंचे थे। जब वे थोड़ी देर के बाद मस्जिद पहुंचे तो रसूल(अ.) ने देरी का सबब पूछा। जवाब में उन्होंने कहा कि वे बीबी फातिमा(स.) के घर की तरफ से जब गुजरे तो देखा कि आप अपने बेटे हसन(अ.) को गोद में लेकर चक्की पीसती जाती हैं और रोती जाती हैं। हज़रत बिलाल(र.) ने कहा अगर आप इजाज़त दें तो मैं आपके बेटे को बहलाऊं या चक्की पीस दूं। फिर बीबी फातिमा(स.) बेटे को बहलाने लगीं और हज़रत बिलाल(र.) ने चक्की पीसी। यह सुनकर रसूल(स.) ने फरमाया तुमने फातिमा(स.) पर रहम फरमाया, अल्लाह तुम पर रहम फरमायेगा।

पैगम्बर मोहम्मद(स.) पर अक्सर यह इल्ज़ाम लगाया जाता है कि उन्होंने नबूवत का दावा दौलत वगैरा हासिल करने के लिये किया था। लेकिन उनकी बेटी के हालात पढ़ने पर मालूम होता है कि यह इल्ज़ाम सरासर गलत है। अक्सर बीबी फातिमा(स.) व उनके बच्चे फाक़ाक़शी की हालत में होते थे। उनके शौहर इमाम हज़रत अली(अ.) का रोज़ाना का दस्तूर ये था कि सुबह मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के बाद वे मज़दूरी पर निकल जाते थे। अगर मज़दूरी मिलती थी तो घर में चूल्हा जलता था, वरना फाका होता था। अक्सर हज़रत अली(अ.) अपनी पूरी मज़दूरी किसी ज़रूरतमन्द की मदद में खर्च कर देते थे, और घर में फाकाक़शी होती थी। उसके बावजूद बीबी फातिमा(स.) की ज़बान से उफ तक नहीं निकलता था। बल्कि वो अपने शौहर के इस काम में  बराबर से शामिल रहती थीं. बीबी फातिमा(स.) ने अपनी पूरी जिंदगी में हज़रत अली(अ.) से कोई फर्माइश नहीं की।

शौहर के घर जाने के बाद आप ने जिस निज़ाम जिंदगी का नमूना पेश किया उसकी मिसाल नहीं मिलती। आप घर का तमाम काम अपने हाथ से करती थीं। झाड़ू देना, खाना पकाना, चरखा कातना, चक्की पीसना और बच्चों की तरबियत यह सब काम वह अकेली करती थीं। फिर जब सन 7 हिजरी में रसूल(स.) ने उन्हें एक कनीज़ अता की जो फ़िज़ज़ा के नाम से मशहूर हैं तो बीबी फातिमा(स.) ने उनके साथ एक सहेली जैसा बर्ताव किया। घर का काम एक दिन वह खुद करती थीं और एक दिन कनीज़ से काम लेती थीं।

पंजतन पाक की फज़ीलत में इस तरह की कई हदीसें मौजूद हैं कि अल्लाह पाक ने ज़मीन व आसमान की खिलक़त इन ही के लिये की है और अगर ये न होते तो कुछ भी न खल्क़ होता। और पंजतन पाक का मरकज़ यानि कि केन्द्र हैं बीबी फातिमा(स.)। इस बारे में एक मशहूर हदीस हदीसे किसा के नाम से जानी जाती है। जब पैगम्बर मोहम्मद(स.), बीबी फातिमा(स.), इमाम अली(अ.), इमाम हसन(अ.) और इमाम हुसैन(अ.) एक चादर के नीचे मौजूद थे। उस वक्त फरिश्तों ने परवरदिगार से पूछा कि चादर के नीचे कौन हैं? तो परवरदिगार ने फरमाया कि चादर के नीचे फातिमा(स.) हैं, उनके बाबा हैं, शौहर हैं और बेटे हैं। मैंने इनको हर बुराई व गंदगी से दूर रखा है और तमाम कायनात इन ही के वसीले में बनाई है।

बीबी फातिमा(स.) ज्ञान व अक्ल में दुनिया की औरतों में सर्वोच्च थीं। मुसहफे फातिमा इनकी लिखी हुई किताब है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह कुरआन से तीन गुना ज्यादा ज़खीम है। यह किताब अब उपलब्ध नहीं है और माना जाता है कि यह इस्लाम के वर्तमान धर्माधिकारी के पास है जिनका जि़क्र हम आगे करेंगे। बीबी फातिमा(स.) के बहुत से खुत्बात, दुआएं व क़ौल विभिन्न किताबों में मिलते हैं जिनमें इल्म के दरिया जोश मारते हुए नज़र आते हैं और साथ में भाषा की खूबसूरती भी दिखाई देती है। उनके कुछ क़ौल इस प्रकार हैं :
1. मोमिन को तीन बातों का ख्याल रखना चाहिए, अपने पड़ोसी को न सताये, अपने मेहमान का इकराम करे, हमेशा अच्छी बात मुंह से निकाले वरना खामोश रहे।
2. औरत के लिये सबसे बेहतर बात ये है कि न वह किसी गैर मर्द को देखे और न उसे कोई गैर मर्द देखे।
3. इमाम हसन(अ.स.) फरमाते हैं कि एक दिन उन्होंने सारी रात बीबी फातिमा(स.) को इबादत गुज़ारी में मशगूल देखा और तमाम दुनिया के मोमिनीन के लिये दुआ माँगते सुना, यहाँ तक कि सुबह हो गयी। तो इमाम ने अपनी माँ से कहा कि आपने अपने लिये कुछ नहीं माँगा। जवाब में बीबी फातिमा(स.) ने फरमाया कि पहले अपने पड़ोसियों का ख्याल करो फिर अपने बारे में सोचो।
4. अल्लाह पाक ने दुनिया की सज़ाएं इसलिए रखी हैं ताकि वह आखिरत में गुनाहगार पर रहम फरमाये।
लिहाज़ा ये सिद्ध होता है कि पैगम्बर मोहम्मद(स.) की बेटी बीबी फातिमा(स.) महिलाओं में इस्लाम की सर्वोच्च अधिकारी थीं। 
(...जारी है।)

Thursday, November 7, 2013

क्या महात्मा बुद्ध इस्लाम धर्म के पैगम्बर थे?

महात्मा बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। ये धर्म इंसान  को इंसान बनने की सीख देता है और वह रास्ते बताता है जिसपर चलकर इंसान अपने जीवन को सफल बना सकता है। अब इस लेख को पढ़ते समय कुछ लोग यह ज़रूर सोच सकते हैं कि महात्मा बुद्ध का सम्बन्ध  इस्लाम से क्यों जोड़ा जा रहा है। क्योंकि  ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि इस्लाम का इतिहास मात्र चौदह सौ साल पुराना है और इसके प्रवर्तक पैगम्बर मुहम्मद(स.) हैं। जबकि वास्तविकता कुछ और है।

आज से हज़ार साल पहले एक महान इस्लामी विद्वान शेख सुददूक(अ.र.) हुए हैं। उन्हें लगभग तीन सौ किताबें लिखने का श्रेय प्राप्त है। उन ही में से एक किताब है 'कमालुददीन' जो मूलत: अरबी में है लेकिन इसका उर्दू सहित कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस किताब का मूल यह है कि हर दौर और हर ज़माने में इस्लाम धर्म  को बताने वाले कभी नबी, कभी पैगम्बर, कभी रसूल और कभी इमाम के तौर पर दुनिया में मौजूद रहे हैं और इस दुनिया के अंत तक मौजूद रहेंगे। यानि अल्लाह कभी दुनिया को बिना धर्म अधिकारी  के नहीं छोड़ता।

इसी किताब के उर्दू तरजुमे के भाग दो में शेख सुददूक(अ.र.) ने एक ऐसे हिन्दुस्तानी नबी का वर्णन किया है जिनकी जीवनी पूरी तरह महात्मा बुद्ध की जीवनी से मैच करती है। हालांकि शेख सुददूक(अ.र.) ने किताब में उनका यूज़ासफ नाम से वर्णन किया है जबकि महात्मा बुद्ध को भारत में सिद्धार्थ नाम से जाना जाता है। भाषाई व इलाकाई अंतर की वजह से हो सकता है कि नाम में ये फर्क हो गया हो जैसा कि हज़रत ईसा (अ.) को ईसाई जीसस कहते हैं व हज़रत यूसुफ(अ.) को जोसेफ।

उपरोक्त किताब में यूज़ासफ की जो कहानी बयान की गयी है उसका संक्षिप्त रूपांतरण इस प्रकार है :

''हिन्दुस्तान में एक बादशाह बहुत बड़े भाग पर हुकूमत करता था। उसकी प्रजा उससे खौफ खाती थी और वह रास रंग में डूबा रहने वाला व खुशामद पसंद शासक था। उसके कोई संतान न थी। उसकी हुकूमत क़ायम होने से पहले हिन्दुस्तान में धर्म का बोलबाला था लेकिन उसने धर्म  को त्याग दिया व मूर्तिपूजा की ओर अग्रसर हुआ और उसकी पैरवी उसकी प्रजा ने की। कुछ ज्ञानियों व विद्वानों ने उसे समझाने की कोशिश की तो उन्हें अपमानित किया गया।
ऐसे वक्त में जबकि बादशाह संतान से मायूस हो चुका था, उसके एक संतान हुई । ये बच्चा इतना खूबसूरत था कि उससे पहले किसी ने इतना खूबसूरत बच्चा नहीं देखा था। संतान होने की खुशी को देश में पूरे एक साल तक मनाने की घोषणा की गयी। बादशाह ने अपने बेटे का नाम यूज़ासफ रखा। फिर उसने मुल्क के तमाम विद्वानों व पंडितों को तलब किया कि वे बच्चे का भविष्यफल तैयार करें।
तमाम विद्वानों व पंडितों ने काफी गौर व फिक्र व गणना के बाद बताया कि यह बच्चा पद-प्रतिष्ठा व मान-सम्मान में देश में सर्वश्रेष्ठ होगा। बादशाह यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। किन्तु उसी समय एक विद्वान ने कहा कि यह बच्चा दुनियावी मान सम्मान में सर्वश्रेष्ठ नहीं होगा बलिक धर्म  कर्म में सर्वश्रेष्ठ होगा और एक महान धर्मगुरू बनेगा। यह दुनिया को त्यागकर केवल धर्म  की राह पर चलेगा।
यह सुनकर बादशाह की खुशी को ग्रहण लग गया। क्योंकि कहने वाला उसकी नज़र में सबसे बड़ा पंडित था। इस डर के कारण बादशाह ने राजकुमार को दुनिया से अलग एक आलीशान महल में ढेरों नौकर चाकरों की देख रेख में रख दिया और उन्हें हुक्म दिया कि राजकुमार पर दु:खों का साया भी नहीं पड़ना चाहिए।     
उस पंडित की भविष्यवाणी के कारण बादशाह तमाम धर्मगुरुओं व सन्यासियों से चिढ़ गया था। अत: उसने तमाम साधू  सन्यासियों को देश से बाहर निकालने का फरमान जारी कर दिया।
अपने इस हुक्म के बाद उसने देखा कि कुछ बुज़ुर्ग  धर्मावलम्बी  अभी भी उसके राज्य में रह रहे थे। बादशाह ने उनसे बात की और उनके उपदेश उसे इतने बुरे लगे कि उसने उन लोगों को जलाने का हुक्म दे दिया। फिर उस देश में बादशाह के हुक्म से धर्मावलंबियों व साधुओं को ढूंढ ढूंढकर जलाया जाने लगा। उसके बाद ही हिन्दुस्तान में मुरदों को जलाने की परंपरा शुरू हुर्इ। बचे खुचे धर्मावलंबी व साधू छुपकर जीवन व्यतीत करने लगे। अब कोई  विद्वान राज्य में ढूंढे नहीं मिलता था।
राजकुमार धीरे धीरे बड़ा हो रहा था। वह सोचता था कि उसे इस तरह तन्हाई में क्यों कैद रखा गया है। उन नौकरों में एक उसका खास दोस्त बन गया था। एक दिन राजकुमार के बहुत ज़ोर देने पर उसने ये राज़ उगल दिया। सुनकर राजकुमार के मन में उथल पुथल होने लगी। उसने अपने बाप से बाहर घूमने की जि़द की। बादशाह ने तमाम नगर घोषणा करवा दी कि राजकुमार के सामने कोई भी खराब चीज़ नहीं आनी चाहिए। नियत समय पर राजकुमार की सवारी निकली। 
फिर वह कई बार भ्रमण पर निकला। इस बीच उसने कुछ बीमार व्यकितयों को देखा। फिर बूढे़ व्यकित को और फिर एक शवयात्रा देखी। यह सब देखकर उसका मन उदासियों से भर गया और वह रातों को जागकर संसार की नश्वरता के बारे में विचार करने लगा। 
इस बीच सरान्दीप देश के बलोहर नामी एक दरवेश को राजकुमार के बारे में मालूम हुआ। वह छुपकर राजकुमार से मिला और उसे धर्म  की शिक्षा देने लगा। बलोहर ने राजकुमार को अल्लाह व उसके नबियों व रसूलों के बारे में बताया और दुनिया व मौत के बाद के जीवन के बारे में बताया। नेकियों व बुराइयों के बारे में बताया। राजकुमार उसकी शिक्षाओं से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने सांसारिक जीवन त्यागकर दरवेशी अखितयार करने का इरादा कर लिया। बलोहर उसे छोड़कर अपने मुल्क वापस लौट गया था। राजकुमार यूज़ासफ उसकी याद में गमगीन रहता था। उसने दुनिया की तमाम रंगीनियों से मुंह मोड़ लिया था।
फिर अल्लाह ने उसके पास एक फरिश्ता भेजा जो तन्हाई में उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और कहने लगा, 'तुम्हारे लिये खैर व सलामती है। तुम जाहिल दरिंदों और ज़ालिमों के बीच एक इंसान हो। मैं हक़ की तरफ से तुम्हारे लिये सलाम लेकर आया हूं और अल्लाह ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है कि मैं तुमको बशारत दूं और तुम्हारे कर्मों को जो इस दुनिया के लिये हैं तुम्हें याद दिलाऊं। जब फरिश्ते का पैगाम यूज़ासफ ने सुना तो अल्लाह की बारगाह में उसने सज्दा किया।
फिर उसने सन्यासियों का वेश धरा और महल को छोड़ दिया। वह घोड़े पर अपने सफर को तय करता रहा। काफी समय तक चलने के पश्चात वह एक ऐसी जगह पहुंचा जहाँ पर बहुत लंबा चौड़ा दरख्त एक चश्मे के किनारे मौजूद था। वह बहुत खूबसूरत दरख्त था। उसकी ढेर सारी शाखाएं थीं और फल बहुत मीठा था। उसकी शाखों में बेशुमार परिन्दों ने अपने घोंसले बना रखे थे। वह जगह उसे पसंद आ गयी। 
अभी वह वहाँ खड़ा ही हुआ था कि उसे अपने सामने चार फरिश्ते नज़र आये जो उसके सामने चल रहे थे। वह भी उनके पीछे चल पड़ा। यहाँ तक कि वह उसे उठाकर फिज़ाये आसमानी में ले गये। वहाँ उसे ज्ञान प्रदान किया गया। फिर उसको ज़मीन पर उतारा और चारों फरिश्ते उसके हमनशीन बनकर रहे। 
फिर उसने लोगों के बीच धर्म को क़ायम किया जो कि उसकी   धरती  से उठ चुका था।

उपरोक्त कहानी से सम्भावित होता है कि यूज़ासफ और कोई नहीं बलिक महात्मा बुद्ध ही थे और वे अल्लाह के नबी थे वरना फरिश्तों का उनसे बात करने का कोई अर्थ नहीं था।

Reference : Kamaluddeen by Sheikh Saduq (a.r.), (Urdu Trans.) Vol-2 Page 202-264 

Sunday, November 3, 2013

कौन है इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी? (भाग 2)


इस लेख के भाग - एक में मैंने बताया कि रसूल(स.) के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी का पद अल्लाह ने अहलेबैत को ही दिया। इतिहास का कोई पन्ना अहलेबैत में से किसी को कोई ग़लत क़दम उठाते हुए नहीं दिखाता जो कि धर्म के सर्वोच्च अधिकारी की पहचान है। यहाँ तक कि जो राशिदून खलीफा हुए हैं उन्होंने भी धर्म से सम्बंधित मामलों में अहलेबैत व खासतौर से हज़रत अली(अ.) से ही मदद ली।

अगर ग़ौर करें रसूल(स.) के बाद हज़रत अली की जिंदगी पर तो उसके दो हिस्से हमारे सामने ज़ाहिर होते हैं। पहला हिस्सा, जबकि वे शासक नहीं थे, और दूसरा हिस्सा जबकि वे शासक बन चुके थे। दोनों ही हिस्सों में हमें उनकी जिंदगी नमूनये अमल नज़र आती है। बहादुरी व ज्ञान में वे सर्वश्रेष्ठ थे, सच्चे व न्यायप्रिय थे, कभी कोई गुनाह उनसे सरज़द नहीं हुआ और कुरआन की इस आयत पर पूरी तरह खरे उतरते थे :

(2 : 247) और उनके नबी ने उनसे कहा कि बेशक अल्लाह ने तुम्हारी दरख्वास्त के (मुताबिक़) तालूत को तुम्हारा बादशाह मुक़र्रर किया (तब) कहने लगे उस की हुकूमत हम पर क्यों कर हो सकती है हालांकि सल्तनत के हक़दार उससे ज़यादा तो हम हैं क्योंकि उसे तो माल के एतबार से भी खुशहाली तक नसीब नहीं (नबी ने) कहा अल्लाह ने उसे तुम पर फज़ीलत दी है और माल में न सही मगर इल्म और जिस्म की ताक़त तो उस को अल्लाह ने ज़यादा अता की है.

जहाँ तक बहादुरी की बात है तो हज़रत अली(अ.) ने रसूल(स.) के समय में तमाम इस्लामी जंगों में आगे बढ़कर शुजाअत के जौहर दिखाये। खैबर की जंग में किले का दरवाज़ा एक हाथ से उखाड़ने का वर्णन मशहूर खोजकर्ता रिप्ले ने अपनी किताब 'बिलीव इट आर नाट' में किया है। वह कभी गुस्से व तैश में कोई निर्णय नहीं लेते थे। न पीछे से वार करते थे और न कभी भागते हुए दुश्मन का पीछा करते थे। यहाँ तक कि जब उनकी शहादत हुई तो भी अपनी वसीयत में अपने मुजरिम के लिये उन्होंने कहा कि उसे उतनी ही सज़ा दी जाये जितना कि उसका जुर्म है। 

17 मार्च 600 ई. (13 रजब 24 हि.पू.) को अली(अ.) का जन्म मुसलमानों के तीर्थ स्थल काबे के अन्दर हुआ. ऐतिहासिक दृष्टि से हज़रत अली(अ.) एकमात्र व्यक्ति हैं जिनका जन्म काबे के अन्दर हुआ. जब पैगम्बर मुहम्मद (स.) ने इस्लाम का सन्देश दिया तो लब्बैक कहने वाले अली(अ.) पहले व्यक्ति थे.

हज़रत अली(अ.) में न्याय करने की क्षमता गज़ब की थी।

उनका एक मशहूर फैसला ये है जब दो औरतें एक बच्चे को लिये हुए आयीं। दोनों दावा कर रही थीं कि वह बच्चा उसका है। हज़रत अली(अ.) ने अपने नौकर को हुक्म दिया कि बच्चे के दो टुकड़े करके दोनों को आधा आधा दे दिया जाये। ये सुनकर उनमें से एक रोने लगी और कहने लगी कि बच्चा दूसरी को सौंप दिया जाये। हज़रत अली ने फैसला दिया कि असली माँ वही है क्योंकि वह अपने बच्चे को मरते हुए नहीं देख सकती।

एक अन्य मशहूर फैसले में एक लड़का हज़रत अली(अ.) के पास आया जिसका बाप दो दोस्तों के साथ बिज़नेस के सिलसिले में गया था। वे दोनों जब लौटे तो उसका बाप साथ में नहीं था। उन्होंने बताया कि वह रास्ते में बीमार होकर खत्म हो गया है और उन्होंने उसे दफ्न कर दिया है। जब उस लड़के ने अपने बाप के माल के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि व्यापार में घाटे की वजह से कोई माल भी नहीं बचा। उस लड़के को यकीन था कि वो लोग झूठ बोल रहे हैं लेकिन उसके पास अपनी बात को साबित करने के लिये कोई सुबूत नहीं था। हज़रत अली(अ.) ने दोनों आदमियों को बुलवाया और उन्हें मस्जिद के अलग अलग खंभों से दूर दूर बंधवा दिया। फिर उन्होंने मजमे को इकटठा किया और कहा अगर मैं नारे तक़बीर कहूं तो तुम लोग भी दोहराना। फिर वे मजमे के साथ पहले व्यक्ति के पास पहुंचे और कहा कि तुम मुझे बताओ कि उस लड़के का बाप कहां पर और किस बीमारी में मरा। उसे दवा कौन सी दी गयी। मरने के बाद उसे किसने गुस्ल व कफन दिया और कब्र में किसने उतारा। 
उस व्यक्ति ने जब वह सारी बातें बतायीं तो हज़रत अली ने ज़ोर से नारे तकबीर लगाया। पूरे मजमे ने उनका अनुसरण किया। फिर हज़रत अली दूसरे व्यक्ति के पास पहुंचे तो उसने नारे की आवाज़ सुनकर समझा कि पहले व्यक्ति ने सच उगल दिया है। नतीजे में उसने रोते गिड़गिड़ाते सच उगल दिया कि दोनों ने मिलकर उस लड़के के बाप का क़त्ल कर दिया है और सारा माल हड़प लिया है। हज़रत अली(अ.) ने माल बरामद कराया और उन्हें सज़ा सुनाई ।

इस तरह के बेशुमार फैसले हज़रत अली(अ.) ने किये और पीडि़तों को न्याय दिया।

हज़रत अली(अ.) मुफ्तखोरी व आलस्य से सख्त नफरत करते थे। उन्होंने अपने बेटे इमाम हसन (अ.) से फरमाया, 'रोजी कमाने में दौड़ धूप करो और दूसरों के खजांची न बनो।' 
मज़दूरों से कैसा सुलूक करना चाहिए इसके लिये हज़रत अली (अ.) का मशहूर जुमला है, 'मज़दूरों का पसीना सूखने से पहले उनकी मज़दूरी दे दो।'

हज़रत अली(अ.) ने जब मालिके अश्तर को मिस्र का गवर्नर बनाया तो उन्हें इस तरंह के आदेश दिये 'लगान (टैक्स) के मामले में लगान अदा करने वालों का फायदा नजर में रखना क्योंकि बाज और बाजगुजारों (टैक्स और टैक्सपेयर्स) की बदौलत ही दूसरों के हालात दुरुस्त किये जा सकते हैं। सब इसी खिराज और खिराज देने वालों (टैक्स और टैक्सपेयर्स) के सहारे पर जीते हैं। और खिराज को जमा करने से ज्यादा जमीन की आबादी का ख्याल रखना क्योंकि खिराज भी जमीन की आबादी ही से हासिल हो सकता है और जो आबाद किये बिना खिराज (रिवार्ड) चाहता है वह मुल्क की बरबादी और बंदगाने खुदा की तबाही का सामान करता है। और उस की हुकूमत थोड़े दिनों से ज्यादा नहीं रह सकती। 

मुसीबत में लगान की कमी या माफी, व्यापारियों और उधोगपतियों का ख्याल व उनके साथ अच्छा बर्ताव, लेकिन जमाखोरों और मुनाफाखोरों के साथ सख्त कारवाई की बात इस खत में मौजूद है। यह लम्बा खत इस्लामी संविधान का पूरा नमूना पेश करता है। और किताब नहजुल बलागाह में खत नं - 53 के रूप में मौजूद है। यू.एन. सेक्रेटरी कोफी अन्नान के सुझाव पर इस खत को यू.एन. के वैशिवक संविधान में सन्दर्भ के तौर पर शामिल किया गया है।

हजरत अली (अ.) का शौक था बाग़ों को लगाना व कुएं खोदना। यहाँ तक कि जब उन्होंने इस्लामी खलीफा का ओहदा संभाला तो बागों व खेतों में मजदूरी करने का उनका अमल जारी रहा। उन्होंने अपने दम पर अनेक रेगिस्तानी इलाकों को नखिलस्तान में बदल दिया था। मदीने के आसपास उनके लगाये गये बाग़ात आज भी देखे जा सकते हैं।

तमाम अंबिया की तरह हज़रत अली ने मोजिज़ात भी दिखाये हैं। सूरज को पलटाना, मुर्दे को जिंदा करना, जन्मजात अंधे को दृष्टि देना वगैरा उनके मशहूर मोजिज़ात हैं।

ज्ञान के क्षेत्र में भी हज़रत अली सर्वश्रेष्ठ थे ।

यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि हज़रत अली(अ.) एक महान वैज्ञानिक भी थे और एक तरीके से उन्हें पहला मुस्लिम वैज्ञानिक कहा जा सकता है.
हज़रत अली(अ.) ने वैज्ञानिक जानकारियों को बहुत ही रोचक ढंग से आम आदमी तक पहुँचाया. एक प्रश्नकर्ता ने उनसे सूर्य की पृथ्वी से दूरी पूछी तो जवाब में बताया कि एक अरबी घोड़ा पांच सौ सालों में जितनी दूरी तय करेगा वही सूर्य की पृथ्वी से दूरी है. उनके इस कथन के चौदह सौ सालों बाद वैज्ञानिकों ने जब यह दूरी नापी तो 149600000 किलोमीटर पाई गई. अरबी घोडे की औसत चाल 35 किमी/घंटा होती है और इससे यही दूरी निकलती है. इसी तरह एक बार अंडे देने वाले और बच्चे देने वाले जानवरों में फर्क इस तरह बताया कि जिनके कान बाहर की तरफ होते हैं वे बच्चे देते हैं और जिनके कान अन्दर की तरफ होते हैं वे अंडे देते हैं.

अली(अ.) ने इस्लामिक थियोलोजी को तार्किक आधार दिया। कुरान को सबसे पहले कलमबद्ध करने वाले भी अली ही हैं. बहुत सी किताबों के लेखक हज़रत अली(अ.) हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं
1. किताबे अली - इसमें कुरआन के साठ उलूम का जि़क्र है।
2. जफ्रो जामा (इस्लामिक न्यूमरोलोजी पर आधारित)- इसके बारे में कहा जाता है कि इसमें गणितीय फार्मूलों के द्वारा कुरान मजीद का असली मतलब बताया गया है. तथा क़यामत तक की समस्त घटनाओं की भविष्यवाणी की गई है. यह किताब अब अप्राप्य है.
3. किताब फी अब्वाबुल फिक़ा
4. किताब फी ज़कातुल्नाम
5. सहीफे अलफरायज़
6. सहीफे उलूविया   
इसके अलावा हज़रत अली(अ.) के खुत्बों (भाषणों) के दो मशहूर संग्रह भी उपलब्ध हैं। उनमें से एक का नाम नहजुल बलाग़ा व दूसरे का नाम नहजुल असरार है। इन खुत्बों में भी बहुत से वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन है.

माना जाता है की जीवों में कोशिका (cell) की खोज 17 वीं शताब्दी में लीवेन हुक ने की. लेकिन नहजुल बलाग का निम्न कथन ज़ाहिर करता है कि अली(अ.) को कोशिका की जानकारी थी. ''जिस्म के हर हिस्से में बहुत से अंग होते हैं. जिनकी रचना उपयुक्त और उपयोगी है. सभी को ज़रूरतें पूरी करने वाले शरीर दिए गए हैं. सभी को रूहानी ताक़त हासिल करने के लिये दिल दिये गये हैं.  सभी को काम सौंपे गए हैं और उनको एक छोटी सी उम्र दी गई है. ये अंग पैदा होते हैं और अपनी उम्र पूरी करने के बाद मर जाते हैं. (खुत्बा-81) स्पष्ट है कि 'अंग से अली का मतलब कोशिका ही था.'

हज़रत अली सितारों द्वारा भविष्य जानने के खिलाफ थे, लेकिन खगोलशास्त्र सीखने के हामी थे, उनके शब्दों में ''ज्योतिष सीखने से परहेज़ करो, हाँ इतना ज़रूर सीखो कि ज़मीन और समुद्र में रास्ते मालूम कर सको. (77वाँ खुत्बा - नहजुल बलागा)
इसी किताब में दूसरी जगह पर यह कथन काफी कुछ आइन्स्टीन के सापेक्षकता सिद्धांत से मेल खाता है, ''उसने मख्लूकों को बनाया और उन्हें उनके वक़्त के हवाले किया. (खुत्बा - 01)

चिकित्सा का बुनियादी उसूल बताते हुए कहा, ''बीमारी में जब तक हिम्मत साथ दे, चलते फिरते रहो."
ज्ञान प्राप्त करने के लिए अली ने अत्यधिक जोर दिया, उनके शब्दों में, ''ज्ञान की तरफ बढ़ो, इससे पहले कि उसका हरा भरा मैदान खुश्क हो जाए." इमाम अली(अ.) दुनिया के एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने दावा किया, "मुझ से जो कुछ पूछना है पूछ लो." और वे अपने इस दावे में कभी गलत सिद्ध नहीं हुए.     

इस तरह निर्विवाद रूप से हम पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद हज़रत अली(अ.) को इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी कह सकते हैं।
(...जारी है।)